सतगुरू बाबा महताब सिंह जी महाराज

महानात्मा का जन्म

निराकारी जागृति मिशन रजि. के दूसरे सतगुरू परमपूजनीय निराकारलीन बाबा महताब सिंह जी महाराज के बारे में कुछ कहना और लिखना चमकते सूर्य को दीपक दिखाना है लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान के जिज्ञासुओं और मानव जीवन के सही लक्ष्य को पूरा करने के लिए बाबा जी का जीवन महान प्रेरणा का श्रोत साबित होगा।

सतगुरू बाबा महताब सिंह जी महाराज का जन्म कार्तिक पूर्णिमा सन 1913 में अविभाज्य हिन्दुस्तान पेशावर में हुआ

आत्मा और परमात्मा का बोध

प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद संयोग से एक दिन जब बाबा महताब सिंह जी महाराज अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे तो उनकी भेंट परमवंदनीय सतगुरू बाबा बूटा सिंह जी महाराज से हुर्इ और निज स्वरूप आत्मा के ज्ञान की अमोलक दात प्राप्त हुर्इ। जब बाबा बूटा सिंह जी महाराज को याद करते हैं तो हम सब का सिर श्रद्धा के साथ सतगुरू बाबा महताब सिंह जी महाराज के पावन श्री चरणों में स्वत: ही झुक जाता है।

परमात्मा के ज्ञान का प्रचार-प्रसार

नश्वर शरीर छोड़ने से पहले सतगुरू बाबा बूटा सिंह जी महाराज ने अपने दोनों जानशीन प्रिय शिष्यों सतगुरू बाबा अवतार सिंह जी महाराज और सतगुरू बाबा महताब सिंह जी महाराज को इस निर्गुण-निराकार परमात्मा का ज्ञान जन-जन तक पहुंचाने का आदेश दिया। बाबा अवतार सिंह जी महाराज ने अपना प्रचार-प्रसार का केन्द्र राजधानी दिल्ली में बना लिया और बाबा महताब सिंह जी महाराज ने यह पुनीत कार्य कानपुर यू.पी. से शुरू किया। सतगुरू बाबा बूटा सिंह जी महाराज के आदेश-उपदेश की पालना करते हुऐ अपना सर्वस्व त्यागकर अनेकों आध्यात्मिक ज्ञान के जिज्ञासुओं का मार्ग दर्शन किया और सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, निर्गुण-निराकार एंव सर्वाधार परमात्मा का प्रत्यक्ष रूप में खुली आंखों से दर्शन-दीदार कराया और यह सिद्ध कर दिया कि सतगुरू अर्थात वक्त के हाकिमरहबर की आज्ञा का पालन करना ही तमाम वेदों-शास्त्रों, सदग्रथों, उपनिषदों और पुराणों का सार और जीवन का आधार है।

सतगुरू शहनशाह बाबा महताब जी महाराज आमतौर पर यह कहा करते थे कि यह गुरमतलाइन कथनी का नहीं बल्कि करणी का मार्ग है जब तक कथनी और करणी बराबर नहीं होती तब तक संतमार्ग मे सफलता कदापि नहीं मिल सकती। जैसे जलता हुआ दीपक ही दुसरे दीपक को जला सकता है ठीक इसी प्रकार से इस ओत-प्रोत निर्गण-निराकार परमात्मा की पहचान और इस परमगोपनीय रहस्य का ज्ञान सिर्फ एक परिपूर्ण वक्तगुरू आत्मवेत्ता रूहानी फकीर के द्वारा ही दूसरे को हो सकता है। यह युक्ति ही संतमार्ग में सफलता की कुंजीं है।

बाबा जी पंजाब, हरियाणा, यू.पी. और हिमाचल प्रदेश में जगह-जगह जाकर रूहानी सत्संग प्रवचनों और ज्ञान गोष्ठियों के माध्यम से भूले-भटके जीवों को हमेशा ज्यों-का-त्यों अडोल रहने वाले निर्गुण-निराकार परमात्मा की पहचान और प्रत्यक्ष में साक्षात्कार करने की अति गोपनीय कला से अवगत कराते थे। बाबा जी के पास आध्यात्मिक ज्ञान का भरपूर खजाना था और रूहानी इल्म के इतने माहिर थे कि जिस पर उनकी दया की एक भी झलक पड़ जाती वह उनका ही होकर रह जाता था।

आत्मशुद्धि का मार्ग

आप कहा करते थे चिंता मत करो चितंन करो अगर आप चिंता करोगे तो परमात्मा निश्चिंत हो जाऐगा और अगर आप प्रभु का चिंतन करोगे तो आपकी चिंता स्वयं मालिकेकुल निर्गुण-निराकार एंव सर्वाधार परमात्मा करेगा। आप अपना काम करो परमेश्वर को अपना काम करने दो। यह निर्गुण-निराकार परमात्मा हमारे इतना नजदीक और हमेशा अंग-संग है कि परिर्वतनशील संसार की कोर्इ भी वस्तु इतनी नजदीक नहीं है। जैसे हमारी परछार्इ हमेशा हमारे साथ-साथ चलती है लेकिन अज्ञानतावश हमें पता ही नहीं होता क्योंकि कोर्इ चीज़ जितनी ज्यादा नजदीक होती है उतना ही इंसान उसकी कदर नहीं करता ठीक इसी तरह से इस परमसत्ता की भी हमें खबर नहीं है। जैसे अगर दर्पण न हो तो आंखें स्वयं अपने आप को नहीं देख सकती ठीक इसी तरह से निज स्वरूप आत्मा के ज्ञान के बिना अपने असली स्वरूप और अस्तित्व का बोध कदापि नहीं हो सकता। जैसे दर्पण में स्वयं अपना ही रूप देखा जा सकता है ठीक इसी प्रकार से ज्ञानचर्चा और तत्ववेत्ता सतगुरू की ज्ञानदृष्टि के द्वारा आत्मदर्शन का अनुभव किया जा सकता है। साधना-अराधना के द्वारा जब प्रारब्ध, संचित और वर्तमान कर्मो का जखीरा खत्म हो जाएगा तब आत्मज्ञान स्वयं ही खोजता हुआ आपके पास पहुंच जाएगा। जैसे फसल तैयार होने पर पौधे पर लगी पत्तियां स्वत: ही खत्म हो जाती है और असली फसल बाकी रह जाती है ठीक इसी तरह से कर्म और कर्मफल कर्ताभाव, अहंभाव, भोक्ताभाव के मिट जाने पर पीछे सिर्फ निज स्वरूप आत्मा ही रह जाती है बस यही वास्तविकता और अकाटय सत्य है।

मिशन का उत्तराधिकार

जब बाबा महताब सिंह जी महाराज अपने जीवन के आखरी पड़ाव में थे तो उन्होने बाबा लक्ष्मण सिंह जी महाराज को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके निराकारी जागृति मिशन की बागडोर उन्हें सौंप कर 8 जनवरी 1983 को तू ही निराकार, तू ही निराकार, तू ही निराकार का सिमरण करते हुऐ निराकारलीन हो गये अर्थात ब्रह्मलीन हो गये। उसी दिन से बाबा लक्ष्मण सिंह जी महाराज ने यह जिम्मेवारी बाखूबी बड़ी लगन और पूर्ण निष्ठा के साथ निभाते हुऐ अपना सारा जीवन इसी अगं-संग निर्गुण निराकार एंव अद्वैत स्वरूप परमात्मा के प्रचार-प्रसार में बिताया।

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